Thursday, June 25, 2020

बुन्देलखण्ड की महिमा

बुन्देलखण्ड की महिमा

यह बुन्देलखण्ड की धरती है, हीरे उपजाया करती है।
कालिन्दी शशिमुख की वेणी, चम्बल, सोन खनकते कंगना।
विन्ध्य उरोज साल बन अंचल, निर्मल हंसी दूधिया झरना।
केन, धसान रजत कर धौनी, वेत्रवती साड़ी की सिकुड़न।
धूप छांह की मनहर अंगिया, खजुराहो विलास गृह उपवन।
पहिन मुखर नर्मदा पैंजनी, पग-पग शर्माया करती है।
यह बुन्देलखण्ड की धरती, हीरे उपजाया करती है।

परमानन्द दिया ही इसने, यहीं राष्ट्रकवि हमने पाया।
इसी भूमि से चल तुलसी ने, धर-धर सीताराम रमाया।
चित्रकूट देवगढ़ यहीं पर, पावन तीर्थ प्रकृति रंगशाला।
झांसी के रण-बीचि यहीं पर, धधकी प्रथम क्रान्ति की ज्वाला।
पीछें रहकर यह स्वदेश को, नेता दे जाया करती है।
यह बुन्देलखण्ड की धरती, हीरे उपजाया करती है।

Wednesday, June 10, 2020

is Fatehpur part of Bunelkhand ? Praveen Pandey



 बुन्देलखण्ड राजाओं का राज था फतेहपुर में
फतेहपुर का ज्ञात इतिहास वैदिक युग के रूप में पुराना है। जनरल कर्णिंग ने वैदिक युग के अवशेषों के बारे में चर्चा करते हुए इस जिले के “भितौरा” और “असनी” स्थानों के बारे में लिखा है। इस बात के सबूत हैं कि चीनी यात्री ह्वेनसंग ने इस जिले के आसानी जगह का दौरा किया।
फतेहपुर शहर के दक्षिण-पश्चिम में 25 किमी दूर गांव रेन्हा में, पुरातात्विक हित के कुछ लेख पाए गए हैं जो 800 बीसी के समय हैं। । मौर्य काल के सिक्कों, ईंटों, मूर्तियों आदि जैसे कई लेख जिला के माध्यम से कुसाद काल और गुप्ता काल पाए गए हैं। गुप्ता काल के कई मंदिर अभी भी गांव तेंदुली, कोरारी, सरहान बुजुर्ग इत्यादि में मौजूद हैं, जो पुरातात्विक दृष्टिकोण से बहुत महत्वपूर्ण हैं। चंद्रगुप्त -2 की अवधि के स्वर्ण सिक्के गांव बिजौली से बरामद किए गए हैं। असानी के किले में इस्तेमाल की जाने वाली ईंटें भी गुप्त अवधि के हैं।
मुगल शासन के दौरान, फतेहपुर का नियंत्रण समय-समय पर जौनपुर, दिल्ली और कन्नौज के हाथों में स्थानांतरित हो गया। 1801 एडी में, यह क्षेत्र ईस्ट इंडिया कंपनी के नियंत्रण में आया और 1814 में इसे उप-विभाजन (परागाना) की स्थिति दी गई, जबकि मुख्यालय भितौरा में था, जो अब एक ब्लॉक कार्यालय है। 1826 एडी में, फतेहपुर को जिला मुख्यालय के रूप में फिर से डिजाइन किया गया था।
खजुहा: ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संदर्भ
लेखक श्री सुशील कुमार शर्मा, परगनाधिकारी, बिन्दकी
फतेहपुर जनपद में खजुहा एक ऐसा ऐतिहासिक स्थान है जो राजनीति, व्यापार, साहित्य और कला के कितने ही सन्दर्भ, लेाक किम्वदन्तियाँ आने से जोड़े हुए चला आ रहा है। खजुहा के विषय में जो कुछ इतिहास सम्मत माना जाता है उसकी आधार भूमि हीवेट का ” Statistical Discriptive and Historical Account of north – western Porvinces of india Vol III Part III Fatehpur”है। इस पुस्तक में कुछ महत्वपूर्ण दिप्पणियाँ और ऐतिहासिक कड़ियाँ एफ0एस0 ग्राउज महोदय ने भी जोड़ी है, जिनका महत्व हीवेट से अधिक प्रामाणिक माना जाता है। हीवेट महोदय की निष्पत्तियाँ इस प्रकार है ’खजुहा टाउन कोड़ा परगना के अन्तर्गत है जो फतेहपुर से 21 मील और जहानाबाद से 12 मील है। यह 26-3’-12’’ अक्षांस और 80-34’-4’’ देशान्तर में स्थित है। यहाँ अक्टूबर के महीने में मेला लगता है। टाउन धनुष बनाने वालों तथा बर्तन बनाने वालों के लिये विख्यात है।
कस्बा लकना खेड़ा और खजुहा दो पुराने गाँव थे जहाँ खजूरों के पेड़ अधिक थे। 1659 में औरंगजेब ने जब शुजा पर विजय पाई तो उने लकना खेड़ा, नंदापुर को मिलाकर एक टाउन बना दिया। उसने एक तालाब सरांय बनवाई और बाग लगवाया और इस स्थान का नाम औरंगाबाद रखा लेकिन यह नाम प्रचलित न हुआ। यहाँ पर नील के कारखाने है जो फर्नियर के स्थापित किये है। फर्नियर 1857 के गर में मारे गये। टाउन में दो-तीन मस्जिदे और कई मन्दिर है। 1712 में इसी स्थान पर फर्रूखसियर और जहाँदरशाह के पुत्र ऐजुद्दीन के बीच घमासान लड़ाई हुई थी। इस टाउन में 1029 मकान थे जिनमें 470 में टैक्स लगता था और 4 आना 7 पाई प्रति वयस्क कर लगता था।
यहाँ की कुछ अन्य विशेषताओं की ओर ग्राउज महोदय गजेटियर भी उल्लेख करता है। ग्राउज के अनुसार ’सराय 10 एकड़ से अधिक भूमि पर बनी है जिसमें 130 जोड़ी कमरे बने है। इसमें दो बड़े विशाल फाटक है। (देखें प्लेट-1) पूर्व की ओर गेट से चलकर जो सड़क जाती है उसी में गाग बादशाही का बड़ा फाटक लगा है जिसका क्षेत्र लगभग 18 एकड़ है, यह चारों ओर दीवार से घिरा है जिसके कोनो मे बड़े-बड़ें बुर्ज है। बीच में फहारा लगाने का स्थान है जो कटावदार पत्थरों से निर्मित है। यह एक ऊँचे और चैड़े चबूतरे पर बना है, जिसमें पूर्व और पश्चिम की तरफ विश्राम कक्ष बने है (प्लेट नं0 2)। इसके एक भाग को नील निर्माताओं ने ले रखा है। इसके पूर्व की ओर एक बहुत बड़ा तालाब है। इस टाउन मेें मन्दिरों की संख्या बहुत है। इन मन्दिरों में दो बहुत ही सुन्दर और महत्वपूर्ण है जिनके साथ तालाब बने हुए है। एक मन्दिर ’जामुनी’ के नाम से प्रसिद्ध है जो किसी बनिया की विधवा का बनवाया हुआ है और दूसरा ’तुलाराम’ के नाम से विख्यात व्यक्ति का बनवाया हुआ है। ग्राउज महोदय ने यह भी लिखा है कि दोनों मन्दिर, बाग बादशाही के दोनों कक्ष और सराय के फाटक के चित्र लिये गये है और उनके निगेटिव रूड़की कालेज में रखे गये है।
हीवेट महोदय के अनुसार खजुहा शब्द सम्भवतः खजूर के पेड़ों की अधिकता के कारण अपना नाम सार्थक करता है। सबसे पहली समस्या नाम और स्थापना ही है जो निश्चित रूप से इतिहास को ललकारती है। खजुहा खब्द की व्युत्पत्ति में यदि खजूरों का हाथ है तो जिस प्रकार का खजुहा नाम है उसी प्रकार खजुरिहा, खजुरगाँव, खजुरहट और खजुराहो भी है जिनमे ’खजुर’ शब्द स्पष्ट पाया जाता है। इतिहास में कहीं-कहीं खजुहा को ’खजुआ’ भी लिखा गया है जो उसकी प्राचीनता को द्योतित करता है। साहित्य में भी ’खजुवा’ ही प्रयुक्त हुआ है-
’दारा की दौरि यह खजुए की रारि नाहिं बांधिवो न होय यह मुराद साह वाल को।’
सर जदुनाथ सरकार न भी इसी नाम का प्रयोग किया है ’दारा का पीछा करते हुए सुदूर पंजाब पहुँच औरंगजेब की गैरहाजिरी के समाचारों ने शुजा की महत्वाकांक्षा को पुनः जाग्रत कर दिया। इस प्रकार शुजा 30 दिसम्बर को इलाहाबाद से आगे तीन दिन की यात्रा की दूरी पर स्थित खजवा नगर जा पहुँचा। यहाँ उसने सुल्तान मुहम्मद को अपना मार्ग रोके हुए पाया। इसी समय औरंगजेब तेजी से चलकर दिल्ली की ओर वापस आया था और 2 जनवरी 1656 को औरंगजेब शुजा के पड़ाव से 8 मील पश्चिम में कोड़ा नामक स्थान पर अपने पुत्र के साथ आ मिला। उसी दिन मीर जुमला भी दक्षिण से वहीं पर आ पहुँचा।
निष्कर्ष रूप में खजुहा औरंगजेब से पहले ही विद्यमान था और उसे खजुहा, या खजवा भी कहते थे। खजुहा के लिए एक नाम फतूहाबाद भी प्रसिद्व है और यहाँ के शुक्ल (उपजाति) ब्राम्हण अपने को फतूहाबादी शुक्ल कहते हैं। ‘कान्यकुब्ज दर्पण‘ जो एक पुरानी पोथी है, उसमें इसका उल्लेख है। इस पोथी के कुछ पन्ने जिनमें संवत् और लेखक का नाम अप्राप्य है मैने प्रघान सम्पादक डाॅ0 ओम प्रकाश अवस्थी के पास देखी थी। पुस्तक की भाषा, लिपि, लिखने का ढंग काफी पुराना है। ‘गणपति पुरवा से निकसि कै फतूहा जाइ बसे गणपति के वंश को गंगाराम ने फतूहाबाद में बसाया गंगाराम डोमनपुर से निकसि कै खजुहा में वसे देवी छिन्नमस्ता के उपासक रहे और अकबर बादशाह मुल्क फतेह करके खजुहा के पास वास किया और गंगाराम को बुलाया कुछ सिद्वता का प्रताप भी अकबर बादशाह को देखाया तब सिद्वता को देखकर खजुहा का नाम फतूहाबाद रखा तब से फतूहाबादी कहलाये। सांकृत गोत्र शुक्लों का असामी स्थानी विश्वा लिख्ते।
गणपति फतूहा के 20
गंगाराम फतूहा के 20
खजुहा के फतूहाबाद नाम की पुष्टि और भी है। असोथर के राजा भगवन्त राय खीची के यहाँ एक चतुरेस नाम का कवि था जिसने गाजीपुर से कुछ स्थानों की दूरी कवित्त के माध्यम से बताई हैः-
आठ कोस असनी भिटौरा है नवै कोस
पाँच कोस किशुनपुर एकडला के पास है।
तीस कोस कानपुर फतूहाबाद बारा कोस
बीस कोस चित्रकूट जहां रामदास हैं।
तीस कोस प्रागराज काशी है साठ कोस,
डेढ़ को स सूर्य सुता करत पाप नास है।
खीची भगवन्तराय भूपं मेरो चतुरेश नाम
गाजीपुर परगना असथोर में वास है।
प्रतीत ऐसा होता है कि अकबर का दिया फतूहाबाद और औरंगजेब का दिया नाम औरंगाबाद सांस्कृतिक और ऐतिहासिक मोह तथा परम्परा संरक्षण के कारण चल नहीं सके। जनश्रुति में जिसके प्रति रागात्मकता विद्यमान थी वह नाम परिर्वतन के पगति उत्सुक नहीं थी।
खजुहा मुगल रोड पर स्थित है, जो मुगल काल का राजमार्ग या शाही मार्ग था। मुगल रोड का उल्लेख 1527 से मिलता है। जब कड़ा जौनपुर जीतकर कड़ा होते हुए अकबर इसी मार्ग से 1561 में जौनपुर गया था ओर लौटा था। इससे सिद्ध होता है कि हो न हो अकबर ने पंड़ित जी की सिद्धि से प्रभावित हो उन्हें खजुहा की कुछ जायदाद प्रदान की हो और उसे फतूहाबाद के नाम से प्रचलित रखने को कहा हो तथा गंगाराम, फतूहाबादी शुक्ल कहलाए हो और यह नाम कुछ दिनों तक खजुहा के साथ-साथ प्रचलित भी रहा हो क्योंकि चतुरेश और भगवन्तराय का काल 18वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध है। खजुहा नाम आल्हा में भी मिलता है। जिस प्रकार नैनागढ़, पैनागढ़, जूनागढ़ आदि है वैसे ही खजुहा भी है।
’बैठत मांगत हैं खजुहा की मांगै राज्य ग्यालियर क्यार।
खजुहा गढ़ के वीर जुझारू तिनकी बड़की है तरवारि।
आल्हा खण्ड में खजुहागढ़ का उल्लेख है। यहाँ की बैठक की इतनी प्रसिद्धि थी कि पृथ्वीराज ने राज परिमाल से इसकी मांग की थी ’बैठक माँगो खजुहा गढ़ की। इसका उल्लेख ’कीरत सागर मैदान’ में है। तात्पर्य यह कि वह नाम पुराना है । आल्हा चन्देल वंशी राजाओं की लोक संस्कृति से जुड़ी हुई शैर्य गाथा है, जिसमें अतिरंजना का पुट तो है परन्तु स्थानों के नाम तो ऐतिहासिक है और आज जहाँ खजुहा है वह स्थान कभी चंदेलों के शासन में रह भी चुका है। चन्देलों ने कन्नौज की सहायता से इसे अपने राज्य में मिलायाथा। ’चंदेल वंशी राजपूत बुन्देल खण्ड में राज्य करते थे और इसके दक्ष्ज्ञिण पूर्व एवं उत्तर में चेदि मण्डल के कलचुरियों का राज्य था। कलचुरियों ने दक्षिणी कोशल और निकटस्थ भागों में अपनी शक्ति जमा ली थी। यह भी सत्य है कि कलचुरियों को अन्र्वेद में भी सफलता मिली और वे गोरखपुर तक अधिकार बढ़ाते चले गये। इसमें युद्ध हुआ …….
*The enthronement of his step brother Bhoj II was naturally unacceptable to Mahipala. he therefore sought the support if the Chandella King Harsdeva as a counterpoise to the alliance vetween his rival and chedi ruler Kokillal. The Chandella chief, who probably still recognised the supermacy of kannoj at once took up his cause and according to the Khajuraho Inseription No. 1 signalised his intervention inimperial affairs by placing Kshitipala on throme which thus increase the power and prestige of his qwn house.
यह प्रतीत होता है कि कन्नौज के राजा महिपाल को अपने सौतेले भाई को राज्य सिंहासन पर बिठाने में आपत्ति थी। इसलिए उस सौतेले ने चेदिवंशियों से गठबन्धन किया और महीपाल ने चन्देलों से । आगे चलकर यह क्षेत्र चन्देलों के हाथ में पूरी तरह आ गया ।
“Indeed it is likely towards the close of his reign Dhanga Carvieal his arms as for as Banaras Since a copper plate of (Vikrama) year 1055=998 A. D. records that he made a rrant of the village of yulli (?) situated in the Usarvaha to the Bhatta Yashodhara as Kashika or Banaras.”
इस प्रकार चंदेलों ने आपने राज्य का विस्तार बनारस तक कर लिया। जब वे बुन्देलखण्ड के उत्तर में चेदि राजाओं को पराजित कर बनारस तक अपने साम्राज्य का विस्तार कर चुके तो निश्चित रूप से आज जहाँ खजुहा है वह क्षेेत्र चंदेलों के राज्य में रहा होगा।
चन्देलों में धंग प्रतापी राजा था। इसने अपना अभिलेख सं0 1059 में लिखवाया ’श्री खजूर वाहके राजश्री धंग देव राज्ये’ और यशोवर्मन के खजुराहों लेख से उसके राज्य-विस्तार का पता लगता है। कालंजर पर यशोवर्मन ने अधिकार कर लिया था और कालंजर की स्थिति महत्वपूर्ण होने के कारण धंग ने कालंजर को ही राजधानी बनाया तथा कालंजराधिपति की उपाधि ग्रहण की और इसके राज्य का विस्तार निम्न श्लोक में वर्णित है-
आकालंजरमाच मालवनदीती रस्थिते भास्वतः।
कालिन्दी सरितस्तटादित इतीप्या चेदि देशावधे।।
आतस्यादपि विस्मयैकनियाद गोपाभिधानीदिगरे।
यं शास्ति क्षित्तिमायर्तोजित भुज व्यापार लीलाजितां।।
इसके अनुसार धंगदेव ने अपने पराक्रम से सहज में ही काजंजर से मालव नदी पर स्थित भस्वत भिलसा तक की कालिन्दी नदी के तट से चेदि देश की सीमा तक तथा वहाँ से गोपागिरि (ग्वालियर) तक विजित किया था। इतना ही नहीं भोज के वराह ताम्र पत्र लेख से ज्ञात है कि कालंजर मण्डल कान्यकुब्ज भूमि में सम्मिलित था।
चन्देलवंशी राजओं का ’खर्जूर’ शब्द से घनिष्ट सम्बन्ध है। ’खर्जूर’ संस्कृत का शब्द है, जिसका तद्भव रूप खजूर होता है और इसे सुरक्षित माना गया है। ’हिन्दी में यह साधारण सुरक्षित है यथा खजूर-खर्जूर। चन्देलों को खजूर वाहक में ही उत्पन्न माना गया है और ऐसा माना जाता है कि ‘खर्जूरवाहक‘ खजूराहो का पूर्वरूप है।
Epigraphic records connect the carly kings of the family vahaka the modern village of Khajuraho in the Chhatarpur State Bundelkhand.
शब्द खर्जूरवाहक की दो प्रकार की लिखावट है। एक तो खर्जूरवाहक में तथा दूसरी निम्न ढंग से-
शुभ कर्णवती के तीर तव पुत्र होव सुवीर।
षज्जुर पुर फिरि जाय दिय दाय जज्ञ कराय।।
लेकिन आगे चलकर यह ग्राम्य नाम उपाधि बन गया ’श्री अर्जूहवाह के राज श्री धंगदेव राज्ये’ और ’श्री से युक्त होने पर इसकी उपाधि में संशय नही रहा। यह वह यश धर्मा उपाधि नही थी तो स्थान धर्मा तो थी ही जैसे देवलवी, अजमेरी, बनारसी आदि। जिस प्रकार ’खर्जूरवाहक’ से मुख-सुख के आधार पर खजुराहो बन गया। और खजुराहो का ’ह’ वाहक के ’ह’ के कारण ही आ पाया। खजूर या खर्जूर में तो कही में तो कही ’ह’ है ही नही तो फिर ’खजुहा’ में ’हा’ का प्रयोग क्योंकर होने लगा। ऐसा हो सकता है कि मुख-सुख के आधार पर…..’हा’ जुड़ा हो यथा बाग-बगहा, पीपर-पिपरहा हो जाता है उसी प्रकार खजूर-खजुरहा-खजुहा हुआ हो लेकिन ’र’ का लोप आकस्मिक नहीं है।
यदि मान लिया जाय कि इसका नामकरण खजूर के पेड़ों की अधिकता के कारण हुआ था तो ऐसी दशा में अकबर का प्रस्तावित नाम फतूहाबाद और औरंगजेब का का औरंगावाद चल निकले होते। इसके पीदे कोई ऐतिहासिक आस्था रही होगी, जिसने इसके बदलने में मानसिक आपत्ति की होगी।
खजुहा में चारो दिशाओं में तालाब है। सबसे पुराना तालाब दक्षिण दिशा की तरफ रानी सागर नामक तालाब है, जो किसी हिन्दू नरेश का बनवाया हुआ है। वहाँ रानियों के स्नान करने का अच्छा प्रबन्ध है। खजुहा की छोटी काशी के नाम से भी पुकारा जाता है। वहाँ रानियों के स्थान करने का अच्छा प्रबन्ध है। खजुहा की छोटी काशी के नाम से पुकारा जाता था। यहाँ से थोड़ी दूर हटकर पंथेश्वरी देवी का मन्दिर भी है। इसकी 50 कोस की परिक्रमा मानी जाती थी और इनकी देवियों की संख्या 6 थी। इन किम्वदन्तियों से इतना निष्कर्ष अवश्य निकलता है कि यह स्थान मुसलमानी शासन से पहले ही अपनी ऐतिहासिकता और जनप्रियता पाये हुए था और विभिन्न शासकों के समय में इसका रूप भी परिवर्तित होता रहा है। इन जनश्रुतियों और ऐतिहासिक प्रमाणें के आधार पर यह सिद्व हो जाता है कि सन्देलवशंी राजा घंगदेव ने चेदि वंशी कलचुरियों को जब यमुना की उत्तरी सीमा से खदेड़ा हो और उन्हें विजित किया हो तो उसने ‘खर्जूरवाहक‘ की अपनी उपाधि के कारण स्थान का नामांकन किया हो, जो आगे चलकर खजुहा के नाम से प्रचलित हुआ और अब तक चला आ रहा है।
फतेहपुर में चंदेलों के विस्तार के विषय में दो मत हैं। हीवेट महोदय मानते हैं कि यह लोग महोबा से कालपी होकर कन्नौज आये और फिर गंगा के किनारे शिवराजपुर हथगाँव, कुटिया, गुनीर आदि स्थानों में बस गये।
chandelas own a few villages in kutiya, gunir and Hathgaon, They originally emigrated for Malwa and setted at Kalinger in Bundelkhand. There are said to have remained for eight generations and them to have Moved to Mahoba. Thence they emigrated to Kanauj and at a later period moved eastword towards Suchaindi and Shivrajpur. The raja of Shivrajpur is the acknowledged head of the Chandelas setted in Fatehpur
इस प्रकार यह माना जाता है कि इस वंश की उत्पत्ति मालवा में हुई जहाँ से महोबा तथा फिर कन्नौज तक विस्तृत हुआ। इस जिले में गाजीपुर के पास पैनागढ़ का प्राजीन दुर्ग इन्हीं चन्देलों का बनवाया हुआ कहा जाता है। कुटिया, गुनीर और हथगांव में चन्देल बहुसंख्या में हैं। इस समस्त सामग्री और ऐतिहासिक विवरणों से यह सिद्ध होता है कि दसवीं शताब्दी में फतेहपुर जनपद का भूभाग चंदेलों के अधिकार में था। गंगा के किनारे-किनारे बसने का मूल कारण कन्नौज की ओर से आकर बसना नहीं रहा होगा बल्कि चेदिवंशी कलचुरियों को गंगा पार खदेड़ देने और फिर पुनः न आने देने के लिये युद्ध की सामरिक सुरक्षा रही होगी। इसी बीच ’खजूरदेव’ नामक वह बुन्दलीखण्डी गाँव यश और उपाधि बन गया था जिसकी आस्था ने खजुहा ऐसे स्थानों में गढ़ (किले) बनाये होंगे। इस किले का उपयोग उन सभी शासकों ने किया होगा जो शासक रहे होंगे और अपनी आवश्यकता और संस्कृति के अनुसार उसके रूप को बदलते रहे होंगे।
नामकरण और ऐतिहासिकता के साथ-साथ अन्य विषय जो इसके साथ जुड़े है वह है इसका व्यापार और संस्कृति का स्वरूप। खजुहा की चारों दिशाओं में चार तालाब हैं। पूर्व की ओर औरंगजेब के द्वारा निर्मित बाहशाही तालाब है, पश्चिम में रोंड़ो का तालाब, उत्तर में तुलाराम का तालाब और दक्षिण में रानी सागर नामक तालाब है। दक्षिण दिशा वाला तालाब ही सबसे पुराना है। निःसन्देह इन सरोवरों में दर्पण की तरह भरा हुआ जल उस युग के न जाने कितने ही सौन्दर्शप्रधान बिम्ब अपने अन्दर छिपाये होगा। जिनकी सीढ़ियों में स्नानार्थियों के चरण पड़ते ही तालाब अपना धन्य भाग्य मानते रहे होंगे। जायसी की उक्ति ‘पावा रूप रूप के दर से’ सार्थक हो उठता रहा होगा। पंडितों, पुजारियों, आस्थावान आस्तिक गृहस्थों के श्लोक मंत्रोच्चारों से सरस्वती का देवभाषा रूप निनादित होता रहा होगा, वही कवि हृदय उन कंगूरों में बैठकर नायिकाओं के सौन्दर्य पर मुग्ध होते रहें होंगे और सद्यःस्नाता नायिकाओं का स्वरूप वर्णन करने में उन्हें यहीं से प्रेरणा मिलती रही होगी। इतना ही नहीं समाज की मर्यादा, शासन की आँकुशी और मन की चंचलता इन कवि हृदयों में सहज ही उद्वेलन और अन्तद्र्वन्द्व भरती रही होगी और कविता-कामिनी का रीतिकालीन वैभव बिखरता रहा होगा। विभिन्न क्षेत्रों से युद्ध लिप्सा में निकले हुए युद्ध वीर अपने वाहनों को यहीं जलपान कराने के लिए आ उपस्थित होते रहे होंगे और इनके कवच, शिरस्त्राण, आयुधों की झनकार सुशोभित और झंकृत होती रही होगी और इन्हीं स्थानों में युद्ध भूमि का बहा रक्त प्रक्षालित होकर सरोवरों के जल को भी रक्तिम वर्ण करता रहा होगा। घाटों में यात्रियों, यायावरों गुप्तचरों का जमघट एक ओर रहा होगा अपनी दासियों, बाँदियों, सहेलियों, सेविकाओं को साथ लिए रानियाँ और राजकुमारियाँ इतराती रही होंगी तो युद्धभूमि में वीरगति प्राप्त होने पर सैकड़ों की संख्या में देवियों के हाथों के केयूर, कंकन, चूडियाँ, उतरती रही होंगी। शोक और हर्ष, उल्लास और भय का समवेत मानक एक साथ गुंजरित होता रहा होगा। इसी बीच में वृद्धा वैष्णवी आपबीती सुनाकर हर तरह की सांत्वना से नयी पीढ़ी को साहस देती रही होंगी और न जाने कितने युगल प्रेमियों के बिहार स्थल रहे होंगे। दूसरा सांस्कृतिक वैभव उन मन्दिरों का है जिनके कारण इस स्थान को छोटी काशी का गौरव प्राप्त था। खजुहा, शिवराजपुर, भिटौरा और असनी की यात्रा चारों धाम की सी यात्रा थी। छिन्नमस्ता देवी, पंथेश्वरी देवी, राधाकृष्ण की युगल मूर्ति, शंकर शिवाले भिन्न-भिन्न धार्मिक स्मार्तों के धर्म केन्द्र और पूज्य बुद्धि के संचार स्थल थे जिनका स्थापत्य आज भी आकर्षित करता है। जामुनी देवी का बनवाया हुआ मन्दिर, तुलाराम का मन्दिर तो इस समय भी अपने वैभव को प्रदर्शित करते हैं जिनमें विभिन्न देवी देवताओं की प्रस्तर मूर्तियाँ, अन्तरंग भाग के दूसरे प्रकोष्ठ में गृहों के चित्र, साथ में अपने वाहनों को लिये हुए और तीसरे स्तर पर छत के साथ लगे हुए युगल मूर्ति देवता। दक्षिणी स्थापत्य कला का सुन्दर आकर्षण इन मन्दिरों की विशेषता है। (प्लेट नं0 3) नीचे भरा हुआ विशाल तालाब जिसका जल में पड़ता हुआ प्रतिबिम्ब उतना ही आकर्षक और रूपवान दिखाई देता है जितना मन्दिर। लेकिन जल में फेंकी हुई कंकड़ी उस सौन्दर्य को चंचल कर देती है और मन्दिर अचल और अडिग खड़ा है। ब्राह्मणों का जैसे यह वास-स्थल ही बन गया और ब्रह्मापूजक आराधक यहीं जुड़ने लगे। वर्ष में कार्तिक के महीने में एक बार रावण-वध की लीला जिसमें हजारों दर्शकों का जमघट। फतेहपुर में इतना विशाल मेला उस मसय कोई नहीं था जिस समय हीवेट ने गजेटियर पर लिखा। सन् 1886 में हीवेट ने बीस हजार दर्शकों का उल्लेख किया है। इसके साथ ही मन्दिरों के कंगूरों के साथ ही वातायान में मस्जिदों के गुम्बज भी दर्शनीय है और जिनकी उच्चता वहाँ काला वैभव का साकार रूप है वहीं उनके अल्लाह हो अकबर का पद प्रदान करने वाली वे अजान की आवाजें भी हैं जो उतनी ही बुलन्द हैं जैसे मीनारों और मस्जिदों की चोटियों की लम्बाई से और ऊपर चली जाकर खुदा के कर्ण कुहरों में अपनी इबादत पहुँचाकर कृतकृत्य होना चाहती हैं। कहते हैं कि सरांय जिसमें 130 कमरे, दो विशाल प्रवेशद्वार, बाग बादशाही, औरंगजेब की बनवाई है और कुछ मानते हैं कि शाह शुजा की। शाहजहाँ के दोनों ही पुत्र अधिकार और वैभव के लिए, यहीं लड़े। कोड़ा में औरंगजेब और खजुहा में शुजा। 10 मील की यह धरती खून से रंग गई। घटना 1659 ई0. में घटी और इसके बाद ही 1712 ई0. में फर्रूखसियर और ऐजुद्दीन में युद्ध ठन गया। यह भी इस धरती पर ही हुआ। 1734 ई0. में असोथर के राजा भगवन्तराय खींची के दमन के लिए 70 हजार घुड़सवार दिल्ली से आये और युद्ध हुआ। क्या ऐसा हो सकता है कि कोड़ा में स्थित भगवन्तराय की सेना और मुगल सेना से खजुहा अप्रभावित रहा हो। इसका विवरण हीवेट की गजेटियर पृ. संख्या 87 में दिया है लेकिन वह दूसरे स्थान की गाथा है।
जहाँ तक खजुहा के व्यापारिक और उद्योगीकरण की व्यवस्था का प्रश्न है। यह स्थान व्यापार की दृष्टि से बहुत ही समुन्नत था। इसके पास से जाने वाली सड़के इस गंगा और यमुना के धारों से जोड़ती थीं और कुछ ऐसे भी कच्चे मार्ग थे जो इस शहर की व्यापारिक व्यवस्था के लिए बड़े ही उपयोगी थे। प्रारम्भ से ही सैनिक स्थान होने के कारण सर्वाधिक वस्तुयें सैन्य से सम्बन्धित बनती थीं, जिनमें धनुषबाण, नाव के आगे का हिस्सा, ढालें और घोड़े की नालें बनाई जाती हैं। ग्राउज महोदय ने इसके 12 मुहल्लों का उल्लेख किया है। अब भी खजुहा के अधिकांश मुहल्ले उन्हीं कारीगारों के नाम पर ही आबाद है। कारीगरी और हस्तकौशल का यह केन्द्र था। दवगर, सिकलीगर, कमगर, कसगर आदि मुहल्ले अब भी हैं। भवन निर्माण करने वाले, मूर्तियाँ बनाने वाले भी थे। सबसे उल्लेखनीय वस्तु जो यहाँ बनती थीं वह है गंजीफा। यह एक प्रकार का ताश है जिसे 96 पत्तों से खेला जाता था। इसमें 8 रंग के 12-12 पत्ते होते थे।
ताश, सफेद, शमशेर, गुलाम
(यह आमद दाता का नाम)
सूर्ख चंग बरात किमाश
(यह आवे एका का काम)
व्यापारिक यातायात नाव, ऊँट, घोड़े और बैलगाड़ियों से होता था। जमुना के ललौली, रेह और औगासी घाट से तथा गंगा में शिवराजपुर, भाऊपुर, कुटिया-गुनीर से घाटों से माल आता जाता था। मुगल रोड इसे प्रान्त के दोनों सूबों कड़ा और कोड़ा से जोड़ती थी। इसके साथ ही बकेवर के पास से बड़ा और कच्चा मार्ग मुसाफा कुडनी होकर जाता था जो मंझावन के पास हमीरपुर रोड से मिलता था। खजुहा से सीधा मार्ग नामामऊ के पास शिवराजपुर जाने वाली सड़क में मिलता था। इस प्रकार चारों दिशाओं से यहाँ के व्यापारियों और सैनिकों का सम्बन्ध जुड़ा था।
आज खजुहा खण्ड विकास का मुख्यालय है जहाँ इस क्षेत्र में विकास की विभिन्न योजनाओं को कार्यान्वित करके समृद्धि के अनेक स्वप्नों को साकार किया जा रहा है। खजुहा की वह भूमि जिसने प्राचीन काल में अपने ऊपर से गुजरती हुई व्यापारिक कारवों की लम्बी कतारों को देखा है, समय-समय पर होने वाली सैनिक मुठभेड़ तथा क्रान्तिकारियों को शहीद होते देखा है, वह अपनी ऐतिहासिक धरोहर को अपने आँचल में सम्भाले हुए इस महत्वपूर्ण और सामयिक परिवर्तन को बड़े सहज ढंग से आत्मसात कर रही है और विकास चक्र को आगे बढ़ने में सहयोग प्रदान कर रही है

Monday, June 8, 2020

गांव की संस्कृति साझी विरासत उमाशंकर पाण्डेय





स्वराज्य के बाद भारत के शहरों की अपेक्षा गांव का विकास ना के बराबर हुआ है शहर समृद्धशाली हुए गांव उजड़े शहरों की संख्या बढ़ी गांव घटे गांव की मिट्टी में खेलकर बढ़ी हुई नौजवानों की पीढ़ी ने उद्योग जगत, राजनीति, मीडिया, कला, शिक्षा, ज्ञान, विज्ञान, कृषि, व्यापार, चिकित्सा, अनुसंधान, सभी क्षेत्रों में अपनी मेहनत से देश दुनिया में स्थान बनाया नाम कमाया लेकिन गांव की जिस मिट्टी ने शक्ति दी ताकत दी फिर मुड़ कर उस गांव को नहीं देखा 2% अपवाद को छोड़ दिया जाए तो ऐसा क्यों गांव ने हमको सब कुछ दिया हमने गांव को क्या दिया गांव में आज भी साझी संस्कृति जीवन मूल्य जीवित है उन्ही संयुक्त परिवार की अवधारणा को लेकर शायद देश दुनिया ने फिर से स्वयं सहायता समूह गठित करने का निर्णय लिया संयुक्त परिवार का स्थान यह पैसा देकर बनाए सहायता समूह कितना ले पाएंगे पता नहीं इन सहायता समूह को दुनिया ने भले ही नोबेल पुरस्कार दे दिया हो भारत के सामाजिक मूल्यों को गढने संरक्षित करने में परिवार का बड़ा महत्व था गांव हमें भूखा नहीं मरने देगा इस विश्वास के साथ हजारों किलोमीटर पैदल यात्रा कर लौटे हैं। देश के वीर योद्धा शक्ति धारक जिन्होंने पूरी क्षमता के साथ देश के शहरों को बनाया देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत किया 1 दिन ना ठहर सके इसे प्रकृतिक प्रकोप कहें या बीमारी करोना कुछ भी चिंतनीय है।


जब देश गुलाम था गांव आजाद थे गांव की आंतरिक व्यवस्था में कोई हस्तक्षेप नहीं था स्वराज आया महानगरों में अटक गए गांव के सामने अपने अस्तित्व की रक्षा का खतरा है जिन गांव के कारण गांधी, विनोबा, नानाजी नरेंद्र ने नगरों की सुख-सुविधाओं को त्याग कर देश के गांव की ओर रुख किया था भारत की आत्मा कहा था शायद आज की ग्राम पंचायत के पंचायत घर को देख ले समझ में आ जाएगा इसी पंचायत घर से ग्राम के विकास की गंगा निकलती है योजना बनती है स्वयं यह घर कैसा है सभ्य समाज के व्यक्ति को एक बार अपने गांव के पंचायत घर को अवश्य देखना चाहिए। जिस घर ने पूरे गांव में शौचालय बांटे, कुआं, तालाब, रोड, बनवाए शायद इसका वर्तमान नाम ग्राम सचिवालय है। जिसमें कभी-कभार ग्राम प्रधान ग्राम सचिव बैठते होंगे उस घर में खुद शौचालय नहीं, बिजली नहीं, फर्नीचर नहीं, कंप्यूटर नहीं, कमरे नहीं 70 वर्षों में 1 ग्राम पंचायत में कितनी करोड़ रुपया खर्च हुआ है यह कहना उचित नहीं है तीन लाख के करीब ग्राम पंचायतें हैं, छै लाख के करीब गांव हैं उदाहरण आपके सामने जिस गांव में क्षेत्र में रहता हूं उस गांव क्षेत्र में मैंने देखा है खुद 5% अपवाद को छोड़ दिया जाए कुछ गांव में होंगे बढ़िया काम हुआ होगा जिन व्यक्तियों को गांव चलाने का 5 साल के लिए चुना गया था उनका घर देख लीजिए उस सरकारी बड़े बाबू को घर देख लीजिए जिसे गांव के विकास का मुखिया कहा जाता है तब भी खड़े हैं। गांव गांव में आज भी सुख-दुख बांटने वाले हैं पानी हवा घर अपने हैं टूटे ही सही किराया नहीं लगेगा इसी उम्मीद से हजारों किलोमीटर की पैदल यात्रा की थकावट गांव पहुंचते ही खत्म हो गई आखिर क्यों संकट में भागे थे क्योंकि आज भी खरे हैं गांव उस शहर में बिजली थी, पानी था, हवा थी, आराम था, की गाड़ी थी, जहाज थी, पैसा था ऐसा क्या नहीं था जिसकी वजह से करोड़ों भागे अपने गांव उस शहर में विश्वास नहीं था गांव में विश्वास है। पीढ़ियों का अपनेपन का बचपन का नाना-नानी दादा-दादी की कहानी, खेत खलिहान होंगे, बैल होगा, गाड़ी होगी, हल होगा, माटी का दिया होगा, भले उसमें तेल ना हो दुनिया में भारत ही केवल गांव का देश है शहर के लोग भले ही गांव वाले को दूसरे दर्जे का नागरिक मानते हो लेकिन गांव वाले नहीं गांव की 
प्रगति की प्रतीक पंचायत घर को विकसित होने में कितना वक्त लगेगा यह कहना मुश्किल है।
परंपरागत तथा नवीन ग्रामीण उद्योगों को संरक्षण देने वाले उद्योग विभाग के हाथ इतने छोटे हैं कि गांव तक पहुंच नहीं पाते फिर भी गांव खड़े हैं गांव में कुम्हार तो है कुम्हार की वह मिट्टी नहीं है जिसका स्पर्श पाकर अंधेरा दूर करने के लिए दिया तैयार होता था वह दिया वेचारा बल्ब से कब तक लड़े कच्चे मिट्टी के मकान, खपरैल लोहे की केटी न से कब तक लड़ेगी गांव के सुनार के पास 16 आने शुद्ध मोहर अब नहीं है बढ़ई के पास हल बैलगाड़ी बनाने की क्षमता है लेकिन लकड़ी गायब है गांव के बच्चों के लिए स्कूल भले ही परिणाम ना दे पाया हो लेकिन बूढ़ों की पोढ शिक्षा ने तंत्र के कई लोगों के घर में उजाला कर दिया है अमूल की क्रांति कुछ इस कदर आई की भले ही गांव के नौजवानों के लिए दूध ना हो लेकिन शाम को साइकिल पर दूध के लदे डिब्बे देखकर अंदाज खुद लगा लीजिए गांव से दूध भी गया भोजन पदार्थ पहले ही चला गया था जिस किसान के हल्के मुठिया को पकड़कर किसान की कलाई में वह ताकत थी कि समूची धरती कांप उठती थी आज वह किसान खुद क्यों कांप रहा है फिर भी खरे हैं गांव। जिस साहित्य ने गांव को होली गोबर वसंत दिए आज वह साहित्य सृजन कब होगा आखिर इन गांव की सुख, शांति, अन्न, धन, लक्ष्मी कहां चली गई किसान के कंठ के गीत लुप्त हो गए मस्ती चुप है फिर भी खरे हैं गांव। योजना कारों, वैज्ञानिकों, प्रशासनिक सुधारों, जनप्रतिनिधियों के सामने एक चुनौती है परंपरागत व्यवस्था की ओर चलना है या आधुनिकता की ओर तय होना चाहिए हम गांव को क्या मानते हैं एक इकाई समूह या देश की आत्मा गांव अपनी परंपरा के कारण भूमि की धुरी है गांव एक आत्मा है एक शरीर है गांव में एक जगह कुछ होता है तुरंत दूसरी जगह खबर फैल जाती है असर अच्छा हो या बुरा गांव सामाजिक संस्कृति की इकाई है गांव के परंपरागत उद्योग धंधे चले गए गांव में लक्ष्मी कैसे रहती लक्ष्मी गई तो सरस्वती ने भी गांव छोड़ दिया प्रतिभाओं को अवसर नहीं जाना मजबूरी था अब आज का मशीन का इंजीनियर समाज की इंजीनियरिंग नहीं जानता गांव गांव में परंपरागत तकनीक है। टेक्नोलॉजी नहीं गांव के विकास की तकनीक जब भी विकसित होगी गांव में ही विकसित होगी गांव के पास जितनी श्रम शक्ति है परंपरा से प्राप्त ज्ञान है, अनुभव है, कौशल है, प्रकृति के दिए हुए साधन है, वह सब पैदाइशी खून में मिला है गांव की योजना में हर परिवार को जगह है, स्पष्ट स्थान है, आगे पीछे नहीं आर्थिक दृष्टि से गांव कमजोर हो सकते आत्मबल से नहीं साक्षर हो निरक्षर हो कुशल आकुशल हो सबके लिए काम था गांव के सब परिवारों की जरूरतें पूरी होती थी गांव आपस में अपनी आवश्यकताओं की चीजों को पैदा करते थे एक दूसरे को मिल बांट कर खाते थे गांव वालों की नियत और अक्ल पर अविश्वास बहुत हो गया अब बात बदलनी होगी सरकार को अब कहना होगा गांव आगे बढ़े अपनी परंपरागत तकनीक दे हम सहायता को तैयार है।
कृषि विवाह परिवार नामक संस्था का जन्म गांव में हुआ गांव में जीवन से मरण तक की व्यवस्था है मानव सभ्यता के आरंभ से वर्तमान तक गांव आज भी खरे हैं जो लोग गांव को पिछड़ा असभ्य कहकर मांडल गांव बनाने की बात करता है वह शायद लार्ड मैकाले की उस शिक्षा नीति का समर्थक है जिसमें उसने कहा था कि अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त व्यक्ति केवल शरीर से ही भारतीय रहेगा दिमाग से वह अंग्रेज होगा उसकी है भविष्यवाणी सच ना हो किसान के लिए उसकी जमीन उसका खेत उसका गांव जिंदगी है जिन गांव को भारत के प्राचीन गणतंत्र का स्रोत कहा जाता है इतिहासकारों ने दिल खोलकर प्रशंसा की है उन गांव को प्रेरणा दाई बनाना होगा।

1920 में एक अनुमान के अनुसार एक लाख व्यक्ति पर 3 सरकारी कर्मचारी थी गांव खरे थे आज 100 व्यक्तियों पर 3 कर्मचारी हैं फिर भी गांव डगमगा रहे हैं 1920 में 1 किलो गेहूं का भाव एक आना था दूध घी बेचना पाप था गरीबी रही होगी लेकिन सब साथ बैठते थे 1928 के रॉयल कमिशन ऑफ एग्रीकल्चर इन इंडिया की रिपोर्ट में कहां गया की भारत के ग्रामीण समाज में धन जमा करने की प्रवती नहीं है इसका मतलब गांव को पैसे की जरूरत नहीं थी स्वराज के बाद क्या हुआ गरीबी नापने का वह मीटर जिससे अंतिम जन का विकास कहते हैं वह कब छूटेगा इस सब के बावजूद भी आज भी खरे हैं गांव। मैंने जो अपने गांव के बुजुर्गों से सुना समझा मन में आया आपके साथ विचार साझा करूं मैं विषय का विशेषज्ञ नहीं हूं वर्तमान स्थिति को देखकर उचित लगा आपको ठीक लगे तो साझा करें गलत हो तो क्षमा करें निश्चित रूप से भारत सरकार राज्य सरकारें, संविधान गांव का विकास चाहते हैं विकास गांव कब पहुंचेगा यह सोचना होगा सबको मिलकर गांव आत्मनिर्भर हो सोचना होगा तभी देश आत्मनिर्भर होगा पलायन रुकेगा इन कठिनाइयों के बाद भी हजारों साल से आज भी खरे हैं गांव







लेखक  उमाशंकर पाण्डेय