Monday, June 8, 2020

गांव की संस्कृति साझी विरासत उमाशंकर पाण्डेय





स्वराज्य के बाद भारत के शहरों की अपेक्षा गांव का विकास ना के बराबर हुआ है शहर समृद्धशाली हुए गांव उजड़े शहरों की संख्या बढ़ी गांव घटे गांव की मिट्टी में खेलकर बढ़ी हुई नौजवानों की पीढ़ी ने उद्योग जगत, राजनीति, मीडिया, कला, शिक्षा, ज्ञान, विज्ञान, कृषि, व्यापार, चिकित्सा, अनुसंधान, सभी क्षेत्रों में अपनी मेहनत से देश दुनिया में स्थान बनाया नाम कमाया लेकिन गांव की जिस मिट्टी ने शक्ति दी ताकत दी फिर मुड़ कर उस गांव को नहीं देखा 2% अपवाद को छोड़ दिया जाए तो ऐसा क्यों गांव ने हमको सब कुछ दिया हमने गांव को क्या दिया गांव में आज भी साझी संस्कृति जीवन मूल्य जीवित है उन्ही संयुक्त परिवार की अवधारणा को लेकर शायद देश दुनिया ने फिर से स्वयं सहायता समूह गठित करने का निर्णय लिया संयुक्त परिवार का स्थान यह पैसा देकर बनाए सहायता समूह कितना ले पाएंगे पता नहीं इन सहायता समूह को दुनिया ने भले ही नोबेल पुरस्कार दे दिया हो भारत के सामाजिक मूल्यों को गढने संरक्षित करने में परिवार का बड़ा महत्व था गांव हमें भूखा नहीं मरने देगा इस विश्वास के साथ हजारों किलोमीटर पैदल यात्रा कर लौटे हैं। देश के वीर योद्धा शक्ति धारक जिन्होंने पूरी क्षमता के साथ देश के शहरों को बनाया देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत किया 1 दिन ना ठहर सके इसे प्रकृतिक प्रकोप कहें या बीमारी करोना कुछ भी चिंतनीय है।


जब देश गुलाम था गांव आजाद थे गांव की आंतरिक व्यवस्था में कोई हस्तक्षेप नहीं था स्वराज आया महानगरों में अटक गए गांव के सामने अपने अस्तित्व की रक्षा का खतरा है जिन गांव के कारण गांधी, विनोबा, नानाजी नरेंद्र ने नगरों की सुख-सुविधाओं को त्याग कर देश के गांव की ओर रुख किया था भारत की आत्मा कहा था शायद आज की ग्राम पंचायत के पंचायत घर को देख ले समझ में आ जाएगा इसी पंचायत घर से ग्राम के विकास की गंगा निकलती है योजना बनती है स्वयं यह घर कैसा है सभ्य समाज के व्यक्ति को एक बार अपने गांव के पंचायत घर को अवश्य देखना चाहिए। जिस घर ने पूरे गांव में शौचालय बांटे, कुआं, तालाब, रोड, बनवाए शायद इसका वर्तमान नाम ग्राम सचिवालय है। जिसमें कभी-कभार ग्राम प्रधान ग्राम सचिव बैठते होंगे उस घर में खुद शौचालय नहीं, बिजली नहीं, फर्नीचर नहीं, कंप्यूटर नहीं, कमरे नहीं 70 वर्षों में 1 ग्राम पंचायत में कितनी करोड़ रुपया खर्च हुआ है यह कहना उचित नहीं है तीन लाख के करीब ग्राम पंचायतें हैं, छै लाख के करीब गांव हैं उदाहरण आपके सामने जिस गांव में क्षेत्र में रहता हूं उस गांव क्षेत्र में मैंने देखा है खुद 5% अपवाद को छोड़ दिया जाए कुछ गांव में होंगे बढ़िया काम हुआ होगा जिन व्यक्तियों को गांव चलाने का 5 साल के लिए चुना गया था उनका घर देख लीजिए उस सरकारी बड़े बाबू को घर देख लीजिए जिसे गांव के विकास का मुखिया कहा जाता है तब भी खड़े हैं। गांव गांव में आज भी सुख-दुख बांटने वाले हैं पानी हवा घर अपने हैं टूटे ही सही किराया नहीं लगेगा इसी उम्मीद से हजारों किलोमीटर की पैदल यात्रा की थकावट गांव पहुंचते ही खत्म हो गई आखिर क्यों संकट में भागे थे क्योंकि आज भी खरे हैं गांव उस शहर में बिजली थी, पानी था, हवा थी, आराम था, की गाड़ी थी, जहाज थी, पैसा था ऐसा क्या नहीं था जिसकी वजह से करोड़ों भागे अपने गांव उस शहर में विश्वास नहीं था गांव में विश्वास है। पीढ़ियों का अपनेपन का बचपन का नाना-नानी दादा-दादी की कहानी, खेत खलिहान होंगे, बैल होगा, गाड़ी होगी, हल होगा, माटी का दिया होगा, भले उसमें तेल ना हो दुनिया में भारत ही केवल गांव का देश है शहर के लोग भले ही गांव वाले को दूसरे दर्जे का नागरिक मानते हो लेकिन गांव वाले नहीं गांव की 
प्रगति की प्रतीक पंचायत घर को विकसित होने में कितना वक्त लगेगा यह कहना मुश्किल है।
परंपरागत तथा नवीन ग्रामीण उद्योगों को संरक्षण देने वाले उद्योग विभाग के हाथ इतने छोटे हैं कि गांव तक पहुंच नहीं पाते फिर भी गांव खड़े हैं गांव में कुम्हार तो है कुम्हार की वह मिट्टी नहीं है जिसका स्पर्श पाकर अंधेरा दूर करने के लिए दिया तैयार होता था वह दिया वेचारा बल्ब से कब तक लड़े कच्चे मिट्टी के मकान, खपरैल लोहे की केटी न से कब तक लड़ेगी गांव के सुनार के पास 16 आने शुद्ध मोहर अब नहीं है बढ़ई के पास हल बैलगाड़ी बनाने की क्षमता है लेकिन लकड़ी गायब है गांव के बच्चों के लिए स्कूल भले ही परिणाम ना दे पाया हो लेकिन बूढ़ों की पोढ शिक्षा ने तंत्र के कई लोगों के घर में उजाला कर दिया है अमूल की क्रांति कुछ इस कदर आई की भले ही गांव के नौजवानों के लिए दूध ना हो लेकिन शाम को साइकिल पर दूध के लदे डिब्बे देखकर अंदाज खुद लगा लीजिए गांव से दूध भी गया भोजन पदार्थ पहले ही चला गया था जिस किसान के हल्के मुठिया को पकड़कर किसान की कलाई में वह ताकत थी कि समूची धरती कांप उठती थी आज वह किसान खुद क्यों कांप रहा है फिर भी खरे हैं गांव। जिस साहित्य ने गांव को होली गोबर वसंत दिए आज वह साहित्य सृजन कब होगा आखिर इन गांव की सुख, शांति, अन्न, धन, लक्ष्मी कहां चली गई किसान के कंठ के गीत लुप्त हो गए मस्ती चुप है फिर भी खरे हैं गांव। योजना कारों, वैज्ञानिकों, प्रशासनिक सुधारों, जनप्रतिनिधियों के सामने एक चुनौती है परंपरागत व्यवस्था की ओर चलना है या आधुनिकता की ओर तय होना चाहिए हम गांव को क्या मानते हैं एक इकाई समूह या देश की आत्मा गांव अपनी परंपरा के कारण भूमि की धुरी है गांव एक आत्मा है एक शरीर है गांव में एक जगह कुछ होता है तुरंत दूसरी जगह खबर फैल जाती है असर अच्छा हो या बुरा गांव सामाजिक संस्कृति की इकाई है गांव के परंपरागत उद्योग धंधे चले गए गांव में लक्ष्मी कैसे रहती लक्ष्मी गई तो सरस्वती ने भी गांव छोड़ दिया प्रतिभाओं को अवसर नहीं जाना मजबूरी था अब आज का मशीन का इंजीनियर समाज की इंजीनियरिंग नहीं जानता गांव गांव में परंपरागत तकनीक है। टेक्नोलॉजी नहीं गांव के विकास की तकनीक जब भी विकसित होगी गांव में ही विकसित होगी गांव के पास जितनी श्रम शक्ति है परंपरा से प्राप्त ज्ञान है, अनुभव है, कौशल है, प्रकृति के दिए हुए साधन है, वह सब पैदाइशी खून में मिला है गांव की योजना में हर परिवार को जगह है, स्पष्ट स्थान है, आगे पीछे नहीं आर्थिक दृष्टि से गांव कमजोर हो सकते आत्मबल से नहीं साक्षर हो निरक्षर हो कुशल आकुशल हो सबके लिए काम था गांव के सब परिवारों की जरूरतें पूरी होती थी गांव आपस में अपनी आवश्यकताओं की चीजों को पैदा करते थे एक दूसरे को मिल बांट कर खाते थे गांव वालों की नियत और अक्ल पर अविश्वास बहुत हो गया अब बात बदलनी होगी सरकार को अब कहना होगा गांव आगे बढ़े अपनी परंपरागत तकनीक दे हम सहायता को तैयार है।
कृषि विवाह परिवार नामक संस्था का जन्म गांव में हुआ गांव में जीवन से मरण तक की व्यवस्था है मानव सभ्यता के आरंभ से वर्तमान तक गांव आज भी खरे हैं जो लोग गांव को पिछड़ा असभ्य कहकर मांडल गांव बनाने की बात करता है वह शायद लार्ड मैकाले की उस शिक्षा नीति का समर्थक है जिसमें उसने कहा था कि अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त व्यक्ति केवल शरीर से ही भारतीय रहेगा दिमाग से वह अंग्रेज होगा उसकी है भविष्यवाणी सच ना हो किसान के लिए उसकी जमीन उसका खेत उसका गांव जिंदगी है जिन गांव को भारत के प्राचीन गणतंत्र का स्रोत कहा जाता है इतिहासकारों ने दिल खोलकर प्रशंसा की है उन गांव को प्रेरणा दाई बनाना होगा।

1920 में एक अनुमान के अनुसार एक लाख व्यक्ति पर 3 सरकारी कर्मचारी थी गांव खरे थे आज 100 व्यक्तियों पर 3 कर्मचारी हैं फिर भी गांव डगमगा रहे हैं 1920 में 1 किलो गेहूं का भाव एक आना था दूध घी बेचना पाप था गरीबी रही होगी लेकिन सब साथ बैठते थे 1928 के रॉयल कमिशन ऑफ एग्रीकल्चर इन इंडिया की रिपोर्ट में कहां गया की भारत के ग्रामीण समाज में धन जमा करने की प्रवती नहीं है इसका मतलब गांव को पैसे की जरूरत नहीं थी स्वराज के बाद क्या हुआ गरीबी नापने का वह मीटर जिससे अंतिम जन का विकास कहते हैं वह कब छूटेगा इस सब के बावजूद भी आज भी खरे हैं गांव। मैंने जो अपने गांव के बुजुर्गों से सुना समझा मन में आया आपके साथ विचार साझा करूं मैं विषय का विशेषज्ञ नहीं हूं वर्तमान स्थिति को देखकर उचित लगा आपको ठीक लगे तो साझा करें गलत हो तो क्षमा करें निश्चित रूप से भारत सरकार राज्य सरकारें, संविधान गांव का विकास चाहते हैं विकास गांव कब पहुंचेगा यह सोचना होगा सबको मिलकर गांव आत्मनिर्भर हो सोचना होगा तभी देश आत्मनिर्भर होगा पलायन रुकेगा इन कठिनाइयों के बाद भी हजारों साल से आज भी खरे हैं गांव







लेखक  उमाशंकर पाण्डेय 




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